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इन्द्र॒ आशा॑भ्य॒स्परि॒ सर्वा॑भ्यो॒ अभ॑यं करत्। जे॒ता शत्रू॒न् विऽच॑र्षणिः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra āśābhyas pari sarvābhyo abhayaṁ karat | jetā śatrūn vicarṣaṇiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। आशा॑भ्यः। परि॑। सर्वा॑भ्यः। अभ॑यम्। क॒र॒त्। जेता॑। शत्रू॑न्। विऽच॑र्षणिः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:41» मन्त्र:12 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (विचर्षणिः) सबका देखनेवाला (इन्द्रः) परमेश्वर (शत्रून्) शत्रुओं को (जेता) जीतनेवाले के समान (सर्वाभ्यः) सब (आशाभ्यः) दिशाओं से हमको (अभयम्) अभय (परि,करत्) सब ओर से करता है, वही हम लोगों को निरन्तर उपासना करने योग्य है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पक्षपातरहित वीरपुरुष दुष्टाचारी और औरों के लिये भय देनेवालों को निवार के प्रजाओं को सुखयुक्त करते हैं, वैसे उपासना किया हुआ सर्वज्ञ ईश्वर सब ओर से दुष्टाचरण से निवृत्त कर श्रेष्ठाचार में प्रवृत्त कर अभय मुक्तिपद को प्राप्त करा कर सब मुक्त जीवों को आनन्दित करता है, इस कारण वही सबको उपासना करने योग्य है ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो विचर्षणिरिन्द्रः शत्रून् जेतेव सर्वाभ्य आशाभ्यो नोऽभयं परिकरत् स एवास्माभिः सततमुपासनीयः ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमेश्वरः (आशाभ्यः) दिग्भ्यः। आशा इति दिङ्ना०। निघं० १। ६। (परि) सर्वतः (सर्वाभ्यः) (अभयम्) (करत्) कुर्यात् (जेता) जयशीलः (शत्रून्) (विचर्षणिः) सर्वस्य द्रष्टा ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पक्षपातरहिता वीरपुरुषा दुष्टाचारिणोऽन्येभ्यो भयप्रदान् निवार्य्य प्रजाः सुखयुक्ताः कुर्वन्ति तथा सर्वज्ञ ईश्वर उपासितस्सन् सर्वतो दुष्टाचारान्निवार्य्य श्रेष्ठाचारे प्रवर्त्तयित्वाऽभयं मुक्तिपदं प्रापय्य सर्वान् मुक्तजीवानानन्दयत्यतोऽयमेव सर्वैर्मनुष्यैः सदोपासनीयः ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे भेदभावरहित वीर पुरुष दुष्टाचरणी लोकांचे व इतरांना भयभीत करणाऱ्यांचे निवारण करतात व प्रजेला सुखी करतात तसे उपासना केलेला सर्वज्ञ ईश्वर दुष्टाचरणापासून निवृत्त करून श्रेष्ठाचरणात प्रवृत्त करून अभय असे मुक्तिपद प्राप्त करवून सर्व मुक्त जीवांना आनंदित करतो. त्यामुळे त्याचीच सर्व माणसांनी उपासना केली पाहिजे. ॥ १२ ॥